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Wednesday 3 April 2013

पोषण (Nutrition)

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पोषण (Nutrition)
पादप अपने कार्बनिक खाद्यों के लिए (कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन और विटामिन) केवल वायुमंडल पर ही निर्भर नहीं रहते हैं, इसलिए इन्हें स्वपोषी (Autotrophs) कहते हैं। कुछ जीवाणु भी सौर ऊर्जा या रासायनिक ऊर्जा का इस्तेमाल कर अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं। उन्हें क्रमश: फोटोऑटोट्रॉफ या कीमोऑटोट्रॉफ कहते हैं। दूसरी तरफ जीव, कवक और अधिकांश जीवाणु, अपना भोजन  निर्माण करने में सक्षम नहीं हैं और वे इसे वायुमंडल से प्राप्त करते हैं। ऐसे सभी जीवों को परपोषी (heterotroph) कहते हैं।

भोजन (Food)
जीवधारी मुख्यत: ऊर्जा प्राप्त करने के लिए खाते हैं। भोजन के निम्नलिखित अवयव होते हैं-
  • कार्बोहाइड्रेट- इसका फार्मूला CN(H2O)N  है। इसके स्रोत आलू, चावल, गेहूँ, मक्का, केला, चीनी इत्यादि हैं। इसको तीन भागों में बांटा गया है-
    • मोनोसैकेराइड - ये सबसे सरल शर्करा होती हं। उदाहरण- राइबोज़, पेन्टोजेज, ग्लूकोज, फ्रक्टोज आदि।

    • डाइसैकेराइड- ये दो मोनोसैकेराइड इकाइयों के जोड़ से बनते हैं। उदाहरण- लेक्टोज, सुक्रोज आदि।

    • पॉलीसैकेराइड- ये बहुत सारी मोनोसैकेराइड इकाइयों के जोड़ से बनते हैं। उदाहरण- स्टार्च, ग्लाइकोजेन, सैल्युलोज।
  • वसा (Fat) - इन पदार्थों में C, H व O होते हैं, लेकिन रासायनिक तौर पर ये कार्बोहाइड्रेट से बिल्कुल अलग हैं। वसा ग्लिसरॉल और वसीय अम्लों के ईस्टर हैं।

  • प्रोटीन (Protein)- ये सामान्यतया C, H, o, N और  S से बनते हैं। ये खाद्य जटिल रासायनिक यौगिक होते हैं और छोटी आंत द्वारा नहीं तोड़े जा सकते हैं। ये एंजाइम द्वारा तोड़े जाते हैं। इनके मुख्य स्रोत दूध, अण्डे, मछली, माँस, दालें आदि हैं।


पाचन (digestion)
पाचन की प्रक्रिया में खाने के कण टूटकर अणु बनाते हैं जो इतने छोटे होते हैं कि रक्त प्रवाह में मिल कर जहाँ उनकी आवश्यकता होती हैं वहीं शरीर में वितरित हो जाते हैं।
लगभग 90 प्रतिशत पचा हुआ भोजन और 10 प्रतिशत जल व खनिज छोटी आंत द्वारा अवशोषित किए जाते हैं। 3-6 घंटे के दौरान जब भोजन छोटी आंत में रहता है तब सक्रिय परिवहन और विसरण दोनों ही सरलीकृत पोषकों के अवशोषण के लिए आवश्यक हैं। अमीनो अम्ल, शर्करा, कुछ विटामिन, खनिज और जल अंकुरों की कोशिकाओं में प्रवेश कर जाती हैं। लेकिन वसीय अम्ल और ग्लीसरॉल सूक्ष्म बिंदुकों के रुप लैक्टील में प्रवेश करते हैं।
विटामिन आवश्यकता
विटामिन A ५००० IU*
विटामिन - B कॉम्पलेक्स थायोमीन 1.5 मिग्रा.
राइबोफ्लेविन 1.8 मिग्रा
नियासिन 18 मिग्रा.
विटामिन B6 2 मिग्रा
पेन्टोथेनिक एसिड 10 मिग्रा
विटामिन C या एस्कॉर्बिक एसिड 75 मिग्रा.
विटामिन D ४०० IU*
विटामिन K **

 *     अंतर्राष्ट्रीय यूनिट
  **     शरीर की आंत के जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित
पोषणिक आवश्यकताएँ
एक संतुलित आहार में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, जल और खनिज पदार्थ उचित अनुपात में और विटामिन प्रचुर मात्रा में होने चाहिए। इन सभी पदार्थों की पोषक विशेषताएँ निम्न हैं-
  • प्रोटीन- इन्हें जीवन की सामग्री कहते हैं। एक ग्राम प्रोटीन के पूर्ण दहन पर 5-6 kcal मिलती है। इसलिए प्रोटीन की दैनिक औसत जरूरत 55 से 70 ग्राम होती है।

  • कार्बोहाइड्रेट- कार्बोहाइड्रेट पाचन में मुख्य अंतिम उत्पाद ग्लूकोज होता है। इसका ऊर्जा उत्पादन में सक्रियता से उपयोग होता है। एक ग्राम ग्लूकोज के पूर्ण दहन पर 4.2 Kcal निकलती है। कार्बोहाइड्रेट की दैनिक आवश्यकता 400-500 ग्राम होती है।

  • वसा- वसा ऊर्जा का मुख्य स्रोत है जिसके एक ग्राम के पूर्ण दहन से 9.0 Kcal कैलरी ऊर्जा मिलती है। एक सामान्य आहार  में करीब 75 ग्राम वसा होनी चाहिए। वसा की कमी से कुछ अपूर्णता रोग हो जाते हैं।

  • खनिज- ये कोशिका और ऊतक की भौतिक दशा को कायम रखने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  कैल्शियम, सोडियम, पौटेशियम, आइरन इत्यादि प्रमुख खनिज हैं।

  • विटामिन - इनकी आवश्यकता अल्प मात्रा में होती है, लेकिन इनकी कमी से अपूर्णता रोग हो जाते हैं। विटामिनों की न्यूनतम आवश्यकता निम्न तालिका में दी गई है-

विशिष्ट कैलोरी आवश्यकताएँ
कैलोरी की मात्राएँ आवश्यकता लिंग, आयु, कार्य की प्रकृति और पर्यावरण पर निर्भर करती है। आहार ग्रहण करने से उपापचय 10 प्रतिशत उद्दीप्त (stimulate) हो जाता है। 8 घंटों के आराम के दौरान, हल्की फुल्की क्रियाओं में, ऊर्जा व्यय ४० Kcal प्रति घण्टा तक बढ़ जाता है।


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भिन्न प्रकार के रोग एवं उनके लक्षण

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 बैक्टीरिया से होने वाले रोग
रोग का नाम रोगाणु का नाम प्रभावित अंग
लक्षण
हैजा बिबियो कोलेरी पाचन तंत्र उल्टी व दस्त, शरीर में ऐंठन एवं डिहाइड्रेशन
टी. बी. माइक्रोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस फेफड़े खांसी, बुखार, छाती में दर्द, मुँह से रक्त आना
कुकुरखांसी वैसिलम परटूसिस फेफड़ा बार-बार खांसी का आना
न्यूमोनिया डिप्लोकोकस न्यूमोनियाई फेफड़े छाती में दर्द, सांस लेने में परेशानी
ब्रोंकाइटिस जीवाणु श्वसन तंत्र छाती में दर्द, सांस लेने में परेशानी
प्लूरिसी जीवाणु फेफड़े छाती में दर्द, बुखार, सांस लेने में परेशानी
प्लेग पास्चुरेला पेस्टिस लिम्फ गंथियां शरीर में दर्द एवं तेज बुखार, आँखों का लाल होना तथा गिल्टी का निकलना
डिप्थीरिया कोर्नी वैक्ट्रियम गला गलशोथ, श्वांस लेने में दिक्कत
कोढ़ माइक्रोबैक्टीरियम लेप्र तंत्रिका तंत्र अंगुलियों का कट-कट कर गिरना, शरीर पर दाग
टाइफायड टाइफी सालमोनेल आंत बुखार का तीव्र गति से चढऩा, पेट में दिक्कत और बदहजमी
टिटेनस क्लोस्टेडियम टिटोनाई मेरुरज्जु मांसपेशियों में संकुचन एवं शरीर का बेडौल होना
सुजाक नाइजेरिया गोनोरी प्रजनन अंग जेनिटल ट्रैक्ट में शोथ एवं घाव, मूत्र त्याग में परेशानी
सिफलिस ट्रिपोनेमा पैडेडम प्रजनन अंग जेनिटल ट्रैक्ट में शोथ एवं घाव, मूत्र त्याग में परेशानी
मेनिनजाइटिस ट्रिपोनेमा पैडेडम मस्तिष्क सरदर्द, बुखार, उल्टी एवं बेहोशी
इंफ्लूएंजा फिफर्स वैसिलस श्वसन तंत्र नाक से पानी आना, सिरदर्द, आँखों में दर्द
ट्रैकोमा बैक्टीरिया आँख सरदर्द, आँख दर्द
राइनाटिस एलजेनटस नाक नाक का बंद होना, सरदर्द
स्कारलेट ज्वर बैक्टीरिया श्वसन तंत्र बुखार

वायरस से होने वाले रोग
रोग का नाम प्रभावित अंग लक्षण
गलसुआ पेरोटिड लार ग्रन्थियां लार ग्रन्थियों में सूजन, अग्न्याशय, अण्डाशय और वृषण में सूजन, बुखार, सिरदर्द। इस रोग से बांझपन होने का खतरा रहता है।
फ्लू या एंफ्लूएंजा श्वसन तंत्र बुखार, शरीर में पीड़ा, सिरदर्द, जुकाम, खांसी
रेबीज या हाइड्रोफोबिया तंत्रिका तंत्र बुखार, शरीर में पीड़ा, पानी से भय, मांसपेशियों तथा श्वसन तंत्र में लकवा, बेहोशी, बेचैनी। यह एक घातक रोग है।
खसरा पूरा शरीर बुखार, पीड़ा, पूरे शरीर में खुजली, आँखों में जलन, आँख और नाक से द्रव का बहना
चेचक पूरा शरीर विशेष रूप से चेहरा व हाथ-पैर बुखार, पीड़ा, जलन व बेचैनी, पूरे शरीर में फफोले
पोलियो तंत्रिका तंत्र मांसपेशियों के संकुचन में अवरोध तथा हाथ-पैर में लकवा
हार्पीज त्वचा, श्लष्मकला त्वचा में जलन, बेचैनी, शरीर पर फोड़े
इन्सेफलाइटिस तंत्रिका तंत्र बुखार, बेचैनी, दृष्टि दोष, अनिद्रा, बेहोशी। यह एक घातक रोग है

प्रमुख अंत: स्रावी ग्रंथियां एवं उनके कार्ये
ग्रन्थि का नाम हार्मोन्स का नाम कार्य
पिट्यूटरी ग्लैंड या पियूष ग्रन्थि सोमैटोट्रॉपिक हार्मोन
थाइरोट्रॉपिक हार्मोन
एडिनोकार्टिको ट्रॉपिक हार्मोन
फॉलिकल उत्तेजक हार्मोन
ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन
एण्डीड्यूरेटिक हार्मोन
कोशिकाओं की वृद्धि का नियंत्रण करता है।
थायराइड ग्रन्थि के स्राव का नियंत्रण करता है।
एड्रीनल ग्रन्थि के प्रान्तस्थ भाग के स्राव का नियंत्रण करता है।
नर के वृषण में शुक्राणु जनन एवं मादा के अण्डाशय में फॉलिकल की वृद्धि का नियंत्रण करता है।
कॉर्पस ल्यूटियम का निर्माण, वृषण से एस्ट्रोजेन एवं अण्डाशय से प्रोस्टेजन के स्राव हेतु अंतराल कोशिकाओं का उद्दीपन
शरीर में जल संतुलन अर्थात वृक्क द्वारा मूत्र की मात्रा का नियंत्रण करता है।
थायराइड ग्रन्थि थाइरॉक्सिन हार्मोन वृद्धि तथा उपापचय की गति को नियंत्रित करता है।
पैराथायरायड ग्रन्थि पैराथायरड हार्मोन
कैल्शिटोनिन हार्मोन
रक्त में कैल्शियम की कमी होने से यह स्रावित होता है। यह शरीर में कैल्शियम फास्फोरस की आपूर्ति को नियंत्रित करता है।
रक्त में कैल्शियम अधिक होने से यह मुक्त होता है।
एड्रिनल ग्रन्थि
  • कॉर्टेक्स ग्रन्थि
  • मेडुला ग्रन्थि
ग्लूकोर्टिक्वायड हार्मोन
मिनरलोकोर्टिक्वायड्स हार्मोन
एपीनेफ्रीन हार्मोन
नोरएपीनेफ्रीन हार्मोन
कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा उपापचय का नियंत्रण करता है।
वृक्क नलिकाओं द्वारा लवण का पुन: अवशोषण एवं शरीर में जल संतुलन करता है।
ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है।
ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है।
अग्नाशय की लैगरहेंस की इंसुलिन हार्मोन रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करता है।
द्विपिका ग्रन्थि ग्लूकागॉन हार्मोन रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करता है।
अण्डाशय ग्रन्थि एस्ट्रोजेन हार्मोन
प्रोजेस्टेरॉन हार्मोन
रिलैक्सिन हार्मोन
मादा अंग में परिवद्र्धन को नियंत्रित करता है।
स्तन वृद्धि, गर्भाशय एवं प्रसव में होने वाले परिवर्तनों को नियंत्रित करता है।
प्रसव के समय होने वाले परिवर्तनों को नियंत्रित करता है।
वृषण ग्रन्थि टेस्टेरॉन हार्मोन नर अंग में परिवद्र्धन एवं यौन आचरण को नियंत्रित करता है।



विटामिन की कमी से होने वाले रोग
विटामिन
रोग
स्रोत
विटामिन ए रतौंधी, सांस की नली में परत पडऩा मक्खन, घी, अण्डा एवं गाजर
विटामिन बी1 बेरी-बेरी दाल खाद्यान्न, अण्डा व खमीर
विटामिन बी2 डर्मेटाइटिस, आँत का अल्सर,जीभ में छाले पडऩा पत्तीदार सब्जियाँ, माँस, दूध, अण्डा
विटामिन बी3 चर्म रोग व मुँह में छाले पड़ जाना खमीर, अण्डा, मांस, बीजवाली सब्जियाँ, हरी सब्जियाँ आदि
विटामिन बी6 चर्म रेग दूध, अंडे की जर्दी, मटन आदि
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औषधियाँ

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औषधियाँ
औषधियाँ रोगों के इलाज में काम आती हैं। प्रारंभ में औषधियाँ पेड़-पौधों, जीव जंतुओं से प्राप्त की जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे रसायन विज्ञान का विस्तार होता गया, नए-नए तत्वों की खोज हुई तथा उनसे नई-नई औषधियाँ कृत्रिम विधि से तैयार की गईं।

औषधियों के प्रकार  (Kinds of drugs)
  • अंत:स्रावी औषधियाँ (Endrocine Drugs)- ये औषधियाँ मानव शरीर मे प्राकृतिक हारमोनों के कम या ज्यादा उत्पादन को संतुलित करती हैं। उदाहरण- इंसुलिन का प्रयोग डायबिटीज़ के इलाज के  लिए किया जाता है।

  • एंटीइंफेक्टिव औषधियाँ (Anti-Infective Drugs) - एंटी-इंफेक्टिव औषधियों को एंटी-बैक्टीरियल, एंटी वायरल अथवा एंटीफंगल के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। इनका वर्गीकरण रोगजनक सूक्ष्मजीवियों के प्रकार पर निर्भर करता है। ये औषधियाँ सूक्ष्मजीवियों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप करके उन्हें समाप्त कर देती हैं जबकि मानव शरीर इनसे अप्रभावित रहता है।

  • एंटीबायोटिक्स (Antibiotics) - एंटीबायोटिक्स औषधियाँ अत्यन्त छोटे सूक्ष्मजीवियों, मोल्ड्स, फन्जाई (fungi) आदि से बनाई जाती हैं। पेनिसिलीन, ट्रेटासाइक्लिन, सेफोलोस्प्रिन्स, स्ट्रेप्टोमाइसिन, जेन्टामाइसिन आदि प्रमुख एंटीबायोटिक औषधियाँ हैं।

  • एंटी-वायरल औषधियाँ (Anti-Virul Drugs) - ये औषधियाँ मेहमान कोशिकाओं में  वायरस के प्रवेश को रोककर उसके जीवन चक्र को प्रभावित करती हैं। ये औषधियाँ अधिकांशता रोगों को दबाती ही हैं। एड्स संक्रमण के मामलों में अभी तक किसी भी प्रभावी औषधि का निर्माण संभव नहीं हो सका है।

  • वैक्सीन (Vaccine) - वैक्सीन का प्रयोग कनफेड़ा (Mumps), छोटी माता, पोलियो और इंफ्लूएंजा जैसे रोगों में,  एंटी-वायरल औषधि के रूप में किया जाता है। वैक्सीनों का निर्माण जीवित अथवा मृत वायरसों से किया जाता है। प्रयोग के पूर्व इनका तनुकरण किया जाता है। वैक्सीन के शरीर में प्रवेश से मानव इम्यून प्रणाली का उद्दीपन होता है जिससे एंडीबॉडीज़ का निर्माण होता है। ये एंटीबॉडीज़ शरीर को समान प्रकार के वायरस के संक्रमण से बचाती हैं।

  • एंटी-फंगल औषधियाँ (Anti-fungal Drugs) - एंटी फंगल औषधियाँ कोशिका भित्ति में फेरबदल करके फंगल कोशिकाओं को चुनकर नष्टï कर देती हैं। कोशिका के जीव पदार्थ का स्राव हो जाता है और वह मृत हो जाती है।

  • कार्डियोवैस्कुलर औषधियाँ- ये औषधियाँ हृदय और रक्त वाहिकाओं को प्रभावित करती हैं। इनका वर्गीकरण उनकी क्रिया के  आधार पर किया जाता है। एंटीहाइपरटेन्सिव औषधियाँ रक्त वाहिकाओं को फैलाकर रक्तचाप पैदा कर देती हैं। इस तरह से संवहन प्रणाली में हृदय से पंप करके भेजे गए रक्त की मात्रा कम हो जाती है। एंटीआरिदमिक औषधियाँ (Antiaryrrythmic drugs) हृदय स्पंदनों को नियमित करके हृदयाघात से मानव शरीर को बचाती हैं।

रक्त को प्रभावित करने वाली औषधियाँ
  • एंटी-एनीमिक औषधियाँ (Antianemic drugs) जिनमें कुछ विटामिन अथवा आइरन शामिल हैं, लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण को बढ़ावा देती हैं।

  • एंटीकोएगुलेंट औषधियाँ (Anticoagulants drugs)- हेपारिन जैसी औषधियाँ रक्त जमने की प्रक्रिया को घटाकर रक्त संचरण को सुचारू करती हैं।

  • थ्रॉम्बोलिटिक औषधियाँ (Thrombolytics drugs) -  ये औषधियाँ रक्त के थक्कों को घोल देती हैं जिनसे रक्त वाहिकाओं को जाम होने का खतरा होता है। रक्त वाहिकाओं में ब्लॉकेड की वजह से हृदय व मस्तिष्क को रक्त व ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती है।

केंद्रीय स्नायु तंत्र की औषधियाँ (Central Nervous System Drugs) -
ये वे औषधियाँ हैं जो मेरूदण्ड और मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। इनका प्रयोग तंत्रिकीय और मानसिक रोगों के इलाज में किया जाता है। उदाहरण के लिए एंटी-एपीलेप्टिक औषधियाँ (antiepilyptic drugs) मष्तिष्क के अतिउत्तेजित क्षेत्रों की गतिविधियों को कम करके मिर्गी के दौरों को समाप्त कर देती हैं। एंटी-साइकोटिक औषधियाँ (anti-pcychotic drugs) सीजोफ्रेनिया (schizophrenia) जैसे मानसिक रोगों के इलाज मेंं  काम आती हैं। एंटी-डिप्रेसेंट औषधियाँ (anti-depressent drugs) मानसिक अवसाद की स्थिति को समाप्त करती हैं।
एंटीकैंसर औषधियाँ (Anticancer Drugs)-
ये औषधियाँ कुछ कैंसरों को अथवा उनकी तीव्र वृद्धि और फैलाव को रोकती हैं। ये औषधियाँ सभी कैंसरों के लिए कारगर नहीं होती हैं। पित्त की थैली, मस्तिष्क, लिवर अथवा हड्डïी इत्यादि के कैंसरों के लिए अलग-अलग औषधियाँ होती हैं। ये औषधियाँ कुछ विशेष तंतुओं अथवा अंगों के लिए विशिष्टï होती हैं। एंटी कैंसर औषधियाँ विशेष कैंसर कोशिकाओं में हस्तक्षेप करके अपना कार्य अंजाम देती हैं।
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